किंचित ! अब प्रभात है,
मेरे जीवन का ,
कितने मन-मयूर ,कोकिला
आराध्य मेरे खोये रहें ,
प्रिय वक्ष प़र अनेकों बार
मन को समझातीं हूँ ,
किं
धर शीश ;
स्वप्न मेरे
मिलन अधरों का,
लहर उठे तन-मन में ,
मेरे सुर-सगीत निछावर
प्रिय के अनुराग में,
प्राण मन के मीत मेरे
स्वप्न के आधार.....
कंहा हो???????
मेरे अंगना नाचने को आशान्वित हैं!
रचूँगी दिवास्वप्न ,
गढ़ूंगी आकृतियाँ
बावरा मन नित
नए स्वप्न बुनता है
मेरे मीत
निहारते मेरा रूप,
चंदा-चांदनी का खेल
हौले से मूंदें नेत्र
ढूढंती हर क्षण प्रिय ......
डॉ। शालिनीअगम
३१/०७/89